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________________ जैन जगती Rececen अतीत खण्ड रति, रास, वैभव, ऐश में तुम धन तुम्हारा खो रहे; सत्कार्य में देते हुये हो कोडि-कोड़ी रो रहे । ऐसे धनी भी हैं कई जो पेट भर खाते नहीं; यदि मिल गई रोटी उन्हें तो साग के पत्ते नहीं !! ॥ ५५ ॥ तुम छोड़ कर निज पनि को बाम्बे, सितारे में रहो; हर ठौर मिलती पत्नि हैं, फिर व्यर्थ क्यों व्यय में रहो! उस ओर तुमको पनि है, इस ओर तुमको पुत्र है; धन-वृद्धि के यों साथ में बढ़ता तुम्हारा गोत्र है !! ॥५६ ॥ है कौन सा ऐसा व्यसन जिसका न तुमको रोग हो; दुष्कर्म है वह कौन सा जिससे न कुछ संयोग हो । था बहुत कुछ कहना मुझे, कहना न मुझको आ रहा; बस दुव्र्यसन, दुष्कर्म में जीवन तुम्हारा जा रहा !! ॥ ५७ ।। ' श्रीमन्त हो, नहिं आपको तो तुब्ध होना चाहिए; है नीति का यह वाक्य, निंदक निकट होना चाहिए। आस्वाद भोगानंद में जब तक तुम्हारी भक्ति है; उद्धार संभव है नहीं-क्षय हो रही सब शक्ति है ॥५८ ।। यह मानना, अवमानना-इच्छा तुम्हारी आपकी; माना न-आशातीत तो होगी बुरी गत आपकी। यदि अब दशा ऐसी रही-जीने न चिर दिन पायँगे: इतिहास से जग के हमारे नाम भी उड़ जायँगे !! | ५ ||
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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