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________________ जैन जगती SearAccord * अतीत खण्ड m __ वेश-भूषा निज वेश-भूषा छोड़ना यह देश का अपमान है। क्या दूसरों की नकल में ही रह गया सम्मान है। जो जाति खलु ऐसा करे, वह जाति जीवित ही नहीं; यदि चढ़ गया रंग लाल तो फिर श्वेतपन है ही नहीं ॥२५॥ इस वृद्ध भारतवर्ष का यह वृद्ध भूषा-वेश है; चारित्र-दशन-ज्ञान का यह पूत ! पार्थिव वेश है। हम दूसरों की कर नकल अब सिद्ध ऐसा कर रहेजन्मे नहीं हम पूर्व थे, हम जन्म अब हैं धर रहे ।। २६ ॥ जलवायु, कर्माचार के अनुसार होता भेष है; प्रतिकूल जिनके वंश हैं, खलु पतित वे ही देश हैं। इस वेश-भूपा में निहित नव रस तुम्हें मिल जायँगे; साहित्य-कौशल-कर्म का हमको जनक बतलायँगे ।। २७ ।। "जब तक न भाषा-भेष का अभिरूप बदला जायगा; तब तक न भारत में हमारा राज्य जमने पायगा।" ये वाक्य किसको याद हैं ? किसने कहो, कब थे कहे ? मंतव्य के अनुसार अब तक कार्य वे करते रहे ! ॥ २८ ॥ हम छोड़ करके वेश-भूषा देश लज्जित कर रहे; अपमान कर हम पूर्वजों का श्याह मुख निज कर रहे ! पूर्वज हमारे स्वर्ग से आकर अगर देखें हमें: मैं सत्य कहता हूँ सखे ! पहिचान नहिं सकते हमें ॥२६॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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