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________________ जैन जगती अतीत खण्ड हम पाँच प्रतिशत भी नहीं श्रीमंत-पद के योग्य हैं; चालीस प्रतिशत भी कहीं हम पेट भरने योग्य हैं। पैंतीश प्रतिशत आत्मजा को बेच कर हैं जी रहे; अवशिष्ट रहतं बीस विष मारे क्षुधा के पी रहे ॥ १५ ॥ अपव्यय हा ! जाति निर्धन हो चुकी,-क्या ध्यान हमको है भला ? देता न वह भी ध्यान जिसके आगई घर है बला ! निज जाति का, निज धम का, निज का 'न' जिसको ध्यान है। नर-रूप में, हम सच कहें, वह फिर रहा बन श्वान है ॥ १६ ॥ हो पाणि-पीड़न के समय व्यय लक्ष कुछ चिंता नहीं; आतिश, कलाबाजी न हो- आनन्द कुछ आता नहीं; "रतिजान' के तनहार बिन जी की कली खिलती नहीं; बिन भोज भारी के दिये यश-कीर्ति बढ़ सकती नहीं ।। १७ ।। धन नाम को भी हो नहीं, नहिं शान में होगी कमी; कौलिण्यता अब वंश की व्यय व्यर्थ में आ ही थमी। करक मृतक-भोजन हजारों बाल-विधवा रो रहीं: घर दीन कितने हो गये, पर बढ़ क्रिया यह तो रहीं ॥१८॥ मेले, महोत्सव, तीर्थ यात्रा अरु प्रतिष्ठा कार्य में; उपधानतप, दीक्षादि में शोभा-विवर्धक कार्य मेंहतूज्ञान हो हम आय से व्यय बहु गुणित हैं कर रहे; सत्कर्म को दुष्कर्म कर हम आप निर्धन बन रहे ॥१६॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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