SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३५ ) साफ लिखा है कि महावीर ने स्वयं जैन धर्म का उपदेश अपने शिष्यों को दिया और फिर इन शिष्यों ने अंगों की रचना की। ये ही अंग जैन सिद्धान्त के मुख्य अंश हैं । परन्तु इस विषय में प्रोफेसर जेकोबी का मत भिन्न है । वे कहते हैं कि जैन जिस साहित्य को पूर्व कहते हैं वह अंगों के भी पहले विद्यमान था और उसमें महावीर और उनके धार्मिक प्रतिद्वंदियों के बीच में जो वाद विवाद हुआ था उसका हाल लिखा था । अपने मत के समर्थन में वे कहते हैं कि प्रत्येक पूर्व का नाम " प्रवाद " अर्थात् वादविवाद है और इसलिये वे दार्शनिक वादविवादों से भरे हुए थे जैसा कि उन नामों से प्रकट होता है । इसके सिवाय वे यह भी कहते हैं कि चूंकि पूर्वो में वाद विवाद युक्त साहित्य था, इसलिये जब महावीर के प्रतिद्वंदी मर गये तब पूर्वो की उपयोगिता जाती रही और इस तत्कालीन स्थिति के अनुकूल ईसा से ३०० वर्ष पहले पाटलिपुत्र की सभा में एक नया सिद्धांत रचा गया । जेकोबी साहब का उपरोक्त मत बिलकुल गलत है और उनका समर्थन किसी प्रकार नहीं हो सकता । वे अपने मत के समर्थन में जैनों की एक जनश्रुति का हवाला देते परन्तु अभयदेव ने समवायांग सुत्र की टीका में इस जनश्रुति को असत्य ठहराया है और लिखा है कि महावीर ने
SR No.010241
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy