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________________ ७६ ५१ दूसरेके गुणका ग्रहण कारना. आप सद् गुणालंकृत हो तदपि संत साधु जन दूसरेका सद्गुण देखकर मनमा प्रमुदित होते है. तोभी सज्जनोंकी अंदरके सद्गुणोंकों देखकर असहनताके लिये दुर्जन उलटे दिलमें दुःख पाते है-दिलगीर होते है और अंतमें दुधकी अंदर जंतु ढुंढने मुजव तैसे सद्गुणशाली सज्जनोभी मिथ्या दोषारोपण करते है. और जूंठे दूधन लगाकर महा मलीन अध्यवसायसें बापले कुत्तेकी तरह बुरे हालसें मृत्यु पाकर दुर्गतिमें जाते है. अमृतकी अंदर विष बुद्धि जैसे सद्गुणोमें औगुनपनका मिथ्या आरोप कबीभी हितकारी नहि है ऐसा समझकर सुज्ञ जनको गुणही ग्रहण करना और सद्गुणकी प्रशंसा करनकी अवश्य आदत रखनी. ५२ औसरपर बोलना. . उचित औसरकी प्राप्ति विगर बोलनाही नहि. उचित औसर माप्त हो तोभी प्रसंग-मोका समालकर प्रसंगानुयायी थोडा और मीठा भाषण करना. विन औसर और हदसे ज्यादा बोलनेसे लोकप्रिय कार्य नहि होसकता. मगर उलटा कार्य बिगडता है. ऐसा समझकर हरहमेशा सचा हितकारी और थोडा-मतलब जितनाही विवेकसे भापण करनेकी दरकार करना. प्रसंगके सिवा बोलनेवाला चकवादी, दिवाने मनुप्यमें गिनाया जाता है, यह खुव यादी रखना!
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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