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________________ ६४.. जैसे मोतिकी उचलता आदिसें परीक्षा की जाती है, तैसें उत्तम पात्रकी भी सुत्तिसें सद्गुणोंकी परीक्षा करनी चाहिये. सुपात्रकी अंदर उत्तम वस्तु शोभायमान या कायम होती है. सुपात्र में विवेक पूर्वक वोया हुवा उत्तम वीज शुद्ध भूमिकी तरह उत्तम फल देता है. छीपमें पड़ा हुवा स्वातिजलबिंदुका सचा मोनि पकता है, और साँपके मुंहमें पडावा वोही (स्वाति ) जलबिंदु झहररुप होता है। वास्ते पात्रपरीक्षा कर दान, मान, विद्या, विनय और अधिकार वगैरः व्यवहार करना योग्य है. सुपात्रमें सव सफल होता. है, और कुपात्रमें नफेके बदले टोटा-अनर्थ पैदा होता है, इस लिये पात्रापात्रका विवेक बुद्धिशालीका अवश्य करना कि जिस स्वपरको अत्र समाधि पूर्वक धर्माराधनसे परत्र-परलोकमें भी मुखसंपत्ति होती है, सोही बुद्धि प्राप्तिका शुभ फल है. ३० कबीभी अकार्य नहि करना. माणांततक भी नहीं करने योग्य निंध कार्य सज्जन जन करतही नहीं जो लोग प्रमाद श होकर (परवशतासें ) लोग विरुद्ध वा धर्म विरुद्ध अति निधर्म करें उन्होंका सज्जनोंकी पंक्तिसें बहार ही गिनने चाहिये. गुण दोष, लाभालाभ, कृत्याकृत्य, उर्षितानुचित, भक्ष्याभक्ष्य. पेयाषेय वगैरः उचित विवेकविकल.. मनुष्यको पशुवत् समझना और उचित विवेक पूर्वक सदैव शुभकायोंके सेवनमें उद्यमशील मनुष्यकों, एक अमूल्य होरेके समानही जानना. ऐसे जनोंका जन्मभी सार्थक है.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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