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________________ ६३ होना चाहियें. दूसरेके सद्गुणोंकी प्रतीति हुवे पीछे भी उनके उपर द्वेष धरना ये दुर्गतिकाही द्वार है, वास्ते केवल दुःखदाइ द्वेषबुद्धि त्यागकर सदैव सुखदाइ गुणबुद्धि धारण कर विवेकी हंसवत् होनेके लिये सदगुणीकों देखकर परम प्रमोद धारण करना. २८ जैसे तैसेका संग स्नेह नहि करना. मूरख साथ सनेहता, पग पग होवे कलेश. ' ए उक्ति अनुसार मूर्ख कुपात्र के साथ प्रीति वांधनी नहि; क्योंकि मूर्खकी प्रीतिसे अपनीभी पत जाती है. यदि स्नेह करना चाहते हो तो विचेकी हंस सदृश, संत - सुसाधु जनके साथही करो कि जिस्से तुम अनादिका अविवेक त्याग कर सुविवेक धरनेमें समर्थ हो सको खास. याद रखना चाहियें कि, संत सुसाधुके समागम समान दूसरा उ-तम आनंद नहि है. ऐसा कौन मूर्खशिरोमणि हो कि अमृतकों छोडकर हालाहल विष सादृश अविवेकीकी संगति चाहे ? श्याना मनुष्य तो कवीभी न चाहेगा ! जो मूंडिये जैसी वृत्तिवाला होगा वो तो जहां तहां अशुचि स्थानमेंही भटकता फिरेगा उसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि जिस्का जैसा जातिस्वभाव होवे वैसाही कृत्य कीया - करै. ऐसे, नीच जनोंकी सोबत अछे सुशील मनुष्यों को भी ववचित् छिंटे लगते है. " २९ पात्रपरीक्षा करनी चाहियें. जैसे सुवर्णकी कस, छेदन, तापादिसें परीक्षा की जाती है,
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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