SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૩ तदनुसार इंद्रियों की प्रेरणा होती है। वास्ते मनकों ही इष्ट विपयादिमें रमन करते हुवेको भयत्नसें रोक लेनेसें इंद्रियें सहजहीमें रुक सकती हैं. मोह मदिरासें मस्त हुवेला मनमर्कट मोजमें और स्यौं विविध विषयों में खेलता दता-भटकता अपने स्वामी-मालिकको संतापता है वही मनमर्कटको सदुपयोगद्वारा समझाकर खराव मार्गमें घूमते हुवे मनको सुमार्गमें ला सकते है. सुशिक्षित हुवा मन पीछे विषं जैसे विषय रसमें मशगुल नही होता है. वो तो ज्ञान ध्यानका मीठी लाज्जत लेनेमें लालघु पनता है. श्री सर्वज्ञ प्रभुजीका दर्शन उन्को बहुत ही प्यारा लगता है. प्रभुजीकी पवित्र पाणी उनका अमृत जैसी मीठी लगती है. शुद्ध देव, गुरु, और धर्म या साधर्मी भाइयोंकी भक्ति करनी उनको बडी रुचिकर लगती है: सद्गुणी संत सुसाधुजनोंकी स्तुति करनी, सदगुणोंकी अनुमोदना करनी उनको बहुत पसंद आती है. सहज सुवास पानेके लिये सहज यत्नवंत होता है. सहज स्वभाव साध्य करनेमें मन अनुकूल हो रहता है. ये सव सत्य-निर्दभ सर्वज्ञके उपदेशका ही महीमा है; विभावमें वर्तन रखनेसे मन और इंद्रियोंका वो निग्रह करता है; मन और इंद्रियें वश्य होजानेसे अंतरात्माका जय और मोहका पराजय होता है, जिसे आत्मा अंतिम मुखका मालिक होता है. सच्चा शुरवीर और सच्चा पंडित वो ही कहाजावै कि जो क्षणिक विषय रसमें मोहवत न होते अक्षय, अनंत, अव्यायाध, अति दी०५ मुख स्वाधीन करने में और उनका साक्षात् संपूर्ण कब्जा करनेमें तत्पर रहता है.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy