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________________ रूप सद् औषधासें माया शल्यको निर्मुल करने वास्त, और संतोष मंत्रस लोभ पिशाचको तावेदार बनानेके वास्ते शक्तिमान् होते है, यह बात अनुभव सिद्ध है. चारों प्रकारके कपाय प्राणी मात्रको चार गतिरुप संसारमें अनेक दफें भ्रमण करवाते हैं। वास्ते सद्विवेकी सज्जनोंको अवश्य उन्हांका परित्याग करनेकी ही जरुरत है. पांचों इंद्रिय और मन दरेक तोफानी घोडेकी वरावर है, तो भी श्रीजिनेश्वरजीके वचनरुप लगाममें विवेकजिन उ. न्होंको तावे कर सकते है. जो अज्ञ, अविवेकी लोग मन और इंद्रियोंके चाकर नफर बनकर चलते है उन्हीके बुरे हाल हेवाल होते हैं. हरएक इंद्रियजन्य कामना-इच्छाके तावे रहनेसे पतंग, भौरा, मच्छी, हाथी और हिरनकी तरह बुरे हालको भेटता है. तब जो पांचोंकी लालच-लोलुपता २५ फंदमें फँस गये हैं वै प्राणियों के कैसे बुरे हाल हो उसका कहनाही क्या ? दुर्जनसे. भी वो ज्यादे __ छोडने लायक है; क्यो कि दुर्जन एक जन्म ही दुःख देता है, और ये तो जन्म जन्म दुःख देनेवाली होती है. मन तो मदमस्त हाथीकी तरह निरंकुश होकर गुणवंतको दुःख फंदेमें फंसा देता है. वास्ते श्रीजिनेश्वर प्रभुके हुकमरु५ अंकुशसे करके उनको तावे कर लेनाही दुरस्त है-इंद्रिय जन्य स्थूल क्षणिक विषयोंमे स्वच्छंद हो. कर भटकनेवाले मनकों कजकर इंद्रियोंकों भी कब्ज कर ले. इंद्रिय जन्य सुखमें आशक्त जनोका मन ही वक्र होनेसे
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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