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________________ ૧૩ अपना कर्तव्य क्या है ? अय भव्य सत्व पर्षद् ! यद्यपि परम पूज्य पितारुप श्रीमन्महावीर परमात्मा के पावन कदम दर कदम चलकर अपनको बहुतसे कार्य करनेके है. अपनी बहुतसी न्यूनताओं दूर करनेकी है, वो सब एकदम पुष्टशलंबन - निमित्त कारणोंके सिवाय बन सके औसा न होवै; तोभी श्रीवीर प्रभूकी पवित्र आज्ञाको अक्षरशः अनुसरकर जगजयवंत जिनशासनकी शोभा बढाने वाले वृद्धाचार्य वगैरः महान् पुरुषोंके कदम यथाशक्ति चलकर अपनको अपनी बडी वडी खामियें समझ समझ अवश्य दूर करनी चाहियें. · प्यारे भाइ और भगिनीओं ! पहिले तो अपने सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा, अमृत जैसी मधुरी वानीस अपनकों किस वास्ते बोध देते हैं, वही अपनी अंदरका बहुतसा हिस्सा भाग्यसेंही जानता होगा, आप सब जैसा तो जानतेही होगे कि, सम्यक्ज्ञान - जानपने बिगरकी क्रिया अंध गिनी जाती है. तैसेही सम्यक्ज्ञान पूर्वक करनेमें आती हुई उचित क्रिया शुभ फलदायी होती है; तथापि अपन अपने आवश्यक कृत्योंका क्या प्रयोजन है वितना भी जानने जितना श्रम नहि लेवें ये कितना शोचनीय और लज्जास्पद है ?अपनकों अपने इष्टदेव, गुरु, धर्म या साधर्मीभाइ - भगिनीयोंकी भक्ति किसलिये करने की है ? हिंसा, अनृत, अदत्त, अब्रह्म और परिग्रह रुप पंचाश्रवका रोध किस लिये करनेका है ? क्रोधादि चारों विपयका त्याग किस लिये करनेका है ? पांचों इंद्रियें और मनका द -
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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