SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वही धर्मज्ञ स्ववीभाइ और भगिनीओं के गुनरत्नोकी उमदा. किम्मत कर सकते हैं. पीडापाते हुवे साधर्मीओं के मुख निमित्त सच्ची अंतरराष्टत्ति उन्ही के ही दिलमै रमन करती है, अपने साधायों के दुःख देखकर वैसे भाग्यवंतीकों ही कंप छूटता है, यथाशक्ति तनमन-वचनसे स्वार्थकी आहूती देकर स्वधर्मीओंकी सची सेवा भी वैसे ही भाग्यभाजन वजाते हैं, और वैमेही धर्मात्मा उत्तम प्रकारकी धर्म बावतकी तालीम देकर उनकों धर्म के सन्मुख, और व्यवहारिक कार्यकी भी तालीम देकर उनका व्यवहार कुशल करते हैं, जिस वै इस लोक और परलोकमै मुखी होते हैं. सच्चा साधमर्मीक संबंध समझमे आये विगर ऐसी परोपकारीत्त क्यों कर जाग्रत हो सकै ? ऐसे अच्छे आशयवाले सज्जन क्या कवी भी अपने धर्म वान्धवोंसे भेद भाव रखें ? कभी नहीं ! क्या उन्होंका अतुल दुःख देखकर निःशंकतासे मोज मुजव मजाह उडा' किंवा अपने और परायके श्रेयका अति उत्तम मार्ग छोडकर झूठे मानभरतवेकी लखर्टमै उपस्थित हो जावै ? अरे ! स्वपर के उद्धारका श्रेष्ठ मार्गसमझ सुज्ञ कुलीनजन कवी भी अनर्थकारी मार्ग अंगीकार कर ही नहीं ! वैसे शाहाने सुजन अच्छी तरहसे समझते है किज्ञानी पुरुष अपने स्वार्थ विगरही मित्र-बंधु है, वैसे महात्मा तो फरा परमार्थ के दावेसे ही अपनको हितमार्ग बतलाते हैं; तो वैसे महाशय पुरुषोंकी हितशिक्षाओंका अनादर करके स्वच्छंदत्ती भज लैनी ये केवल उगादरूप दीवानपना ही है, अमृतकी बोतल ढोल देकर उसमै विष भर लेने जैसी बात है, सुन्ने के थालमै धूल
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy