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________________ .२५२ उमदा कुटुंबसुधारा हो सकेगाही नहीं, और समस्त झाति जाति... के उमदा सुधारे बिगर समस्त कोम-समुदायका, सुधारा चाहिये वैसी उमदा रीतिसे कभी न हो सकेगा. औसा सामान्य नियम .. अपनको प्रत्यक्ष अनुभव गौचर हो सकता है. जिस घरमें विद्या....रसिक विवेकी वृद्ध वर्तत होतेहै उसी घरमें बहुत करके संबसंतति गुणशालीही होती है, इसी मुजप आगे सर्वत्र समझ लेना. जैसे लो. किकमें वैसेही लोकोत्तर-मुनिमार्ग भी समझ लेना. जिनसाधुसभुदायमें नायक गणाध्यक्ष उत्तम होगा यानि सम्पम् ज्ञान दर्शन चारित्र आराधनेमें हमेशा तत्पर-हर्षचित्तवंत होगा, उनका शेष परिवार भी बहुत करके वैसाही होगा. लेकिन जहां अंग्रेश्वरही निगुणी-पंच महावतरुप पंचमहा प्रतिज्ञाों अर्हतादिक समक्ष करके वमनभक्षी श्वान-कूतेकी तरह छकायका हरहमेशा नाश करावै, झूठ पोल, नदी हुइ पराइचीज लेवै-लिपावै. मैथुन सेवै सेवाब. (चितामणिरत्न साइश दुर्लभ शील आप खंडन करे और महा पापमति हो औरों का खंडन करावै.) परिग्रह-महा अनर्थकारी द्रव्यादिक मू५ बाह्य और मिथ्यात्व कषाय काम सेवादिक आ. 'भ्यंतर परिग्रह आप रख-रखावै. यावत् 'बिटली हुइ बमनी तुरकडीसेंभी जाय उसी मुजब खुल्ली रीतिसें रात्रिभोजन कर, जुगार खेलै, कंदमूलादिक अभक्ष्य भी भक्षन कर, शिरमें सुगंधी तेल siलकर बालोंको समारै, आयनेमें मुँह देखे, कल्पपादपादिक सदृश संतशिरोमनी गुणराकर सुविहित साधु मुनिराजोंकी अवगणना
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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