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________________ सनिधिमें अनादि दोषोंसे ढका गया हुवा है उसीकोही प्रकट करना, यही सत् संगतिका फल है. हरएक मावाप उपर मुज सद्गुरुद्वारा शास्त्र श्रवण करके या अभ्यास करके उन अंदरकी हितशिक्षायें हृदयमें धारन कर अपनी पूर्वकी बुरी आदत-भूले सुधार करके अपने पाल वच्चाओंको परावर सुधार न सकेंगे; क्यौं कि उन्होंका संस्कार न पायो हुवो हृदयमें दूसरेको सुधारनेकी फिन कहांस पैदा हो सके ? आत्मसुधारके अति स्वादिष्ट फल चाखने में आपखुदही पेनशीव रहे हुवे दूसरोंकों किसतरह भाग्यशाली बना सके ? " जिसका अगुआही अंधा उसका लश्कर कुमें ही गिरता है." इस न्यायके अनुसार उन्मार्गपर चलती हुइ स्व संततिको कौन रोक सके ? उगार्ग पर चढकर पायमाल होती हुई आपकी संततिकाही भला या. रक्षण करनाही जब अशक्य है, तो फिर इतर सव संतति-मजाका भला या रक्षण करने की तो पातही कहां रही ? पारीकीसें तपासनेसें स्पष्ट मालुम होकर समझनेमें आ सकै वैसा है कि हरएक घर कुटुंब-ज्ञाति-जाति या समस्त कोमसमुदायका सुधारा के लिये उन हरएक हरएक अग्रेश्वरों को सुधरनेकी खास जरुरत है. अच्छे राहपर अच्छी और सरल सुधारेकी ये कुंजी अति उपयोगी होनेसें वे हरएकको खसूस लक्ष्य में लेने लायक है. - मापाप वगैर: गुरुजनका सच्चा सुधारा हुवे विगर कभी-गृहसुधार। हो सकेगाही नहीं, समस्त गृहसुधारा हुपे बिगर कभी
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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