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________________ दा-डम रकम देकर अपने जैननामको सार्थक करना चाहिये. कि बहना? ____१०१तकी किमत अपने लोगोंको चाहिये उतनी समझने नहीं आई है, उसे 'क्षण लाखिणो जाय, गोयम मकर प्रमाद' वगैरः "मृद्धवाक्य अपन सुनते हैं, कहते है, तोभी उनके करोडपे हिरो भी नहीं चलते है. विकथा, विरोधादिको निकमा पस्त गुमाडालते हैं; किंतु श्रेष्ट शास्त्रका अभ्यास करने में या अच्छा संप करानेवाली — उत्तम सलाह देनेरु५ परोपकार वृत्तिमें अपने पख्तका सदुपयोग नहीं करते है, ये क्या ओछे शोची पाता है ? मानवमय आदिकी सामग्री वारंवार मिलनी -बडी दुर्लभ है, तथापि अपन बेदरकारी रखकर मरजी मुजब चलन चलानेसें सर्वस्व गुमाकर रीते हाथोंसें मजल करनेके जैसी कार्रवाही करते है ये बहुत दि___ लगीर होने लायक है. अपनी निर्मल बुद्धिका, अगर जो जो अ५ नको शुभ सामग्री प्राप्त हुई होवे उसका जिस तरह उपयोग होसके उस तरह करलेनेमें कटिबद्ध रहना चाहिये. क्योंकि कालका कुछ भी भरोसा नहीं 'कलको कालका डर है' यह कहावत न भूलजानी चाहिये ज्यों अपनको तत्वज्ञान प्रकट होता जाय, त्यों श्रीसद्गुरू द्वारा शाख श्रवण करके यावर उस वचनों को पूर्ण प्रकार मनन कर यथाशक्ति स्वकत्तव्य समझकर उसी मुजव चलन रखनका प्रयत्न करना चाहिये. ज्ञानी पुरुपके सचार और सदाचारोंको देखनेसे अपनको कितना दिलगीर होना चाहिये ! अंतमें यथाशक्ति,
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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