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________________ ૨૨૦ खातमें या पुण्य स्थलमें वापरकर खुलासा कर उनका चेप ज्यादा न पहुंचने पावे वैसा जगह जगह बंदोबस्त होनेकी खास जरूरत है, यह बात लक्षमें रखनेही लायक है. स्वपरको डूबते हुवे अटकाकर धर्म निमित्त निकाले गये द्र०यका खुलासा कर अच्छा उपयोग करना-ये स्वपरको तिरने तिरानेका रस्ता होनेसे अवश्य आदरने लायक है, वास्ते सुखक-अर्थी जीवोंकों इस बावतमें प्रमाद करना अयोग्य है, ९दिनपर दिन समय कठिन आता जाता है. उसमें श्रीसंघ-- के आधारभूत मुख्यतासें श्री जिनराजमरुपित आगम और जिनंद्रजीकी प्रतिमाजी हैं. इन दोनूकी तमाम आशातनायें दूर कर विशेष विनय करनाही योग्य है. शास्त्र पुराने होकर उन्होंका विच्छेद न हो जावै, और जिर्ण चैत्य भी उद्धार किये बिगर पतनः स्थितिको न भेट पडै, उसीकी अच्छी तरह निगाह रखनीही चाहिये. भूख लोग लाभा लाभ न शोचते केवल यश-नामना-कीर्तिके वा-- .. स्ते मरते हैं; लेकिन जिर्णोद्धारसे कुछ कम लाम या कम नामना नहीं हैं. जिर्णोद्धारसे तो अमर नाम होकर अक्षय यश और सुख मिलता है. वास्ते स्वच्छंदता छोडकर शास्त्र नीतिसें अक्षय लाभ ले. नेके लिये यत्न करनाही दुरस्त है. लखर्ट खर्च यानि ज्ञातिभोजन-. नाच, मुजरा, खेल, तमाशे-आदि करनेके बदलेमें औसे बारीक परूतमें दुःख पाते हुवे साधर्मी भाइयोंको मदद देकर उन्होंको उद्धार करनेमें बहुत लाभ समाया गया है, तो सुमती धारणकर
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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