SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२९९ · सकै; मगर याद रखना चाहिये कि, ये सभी विवेककी खामीन्यूनता दूर करनेसेंही सिद्ध हो सकै, अन्यथा तो आकाशंकुसुमवत् असंभवितही समझ लेना. अरे ! लाभ हानीका भी पूरे नहीं सोचनेवाले सच्चे - बनिये ही नहीं कहे जावै, तो सच्चा जैनवीर सर्वज्ञ पुत्र તો कहे ही क्यों जाय ? एक स्वच्छंदपनसें चलनेरुप अविवेक ही दूर किया जाय, और परम पवित्र परमात्मा के आगम अनुसारसें निःशंक पूर्वक पूर्ण श्रद्धा मेमसें वर्त्तनेगें आवे तो कुल जैनशासनमें हर हमेशां दीवाली हो रहौ. अहा ! ऐसा शुभ समय आया हुवा अपन साक्षात् कब देख सकेंगे ? अपन कम बोलकर ज्यादा अच्छा कर बतलाना कब शीखेंगे ? अपनमें घुसी हुई मलीनवृत्तियों का कम अंत आयगा ? अपन प्रसन्न चितसे अपनी फर्ज समझकर अदा करनेमें कद भाग्यशाली होयेंगे ? अपन एक दूसरेकी तर्फ अमृत नजरसें देख गुन ग्रहण करलेनेका कब सीखेंगे ? और अपन वैसे कायम अभ्यास से दोषदृष्टिकों तन कत्र दूर कर सकेंगे ? 2 ८ अपने श्रावक लोगों मरणके वख्त पुण्यदान कथन करनेकी रीति चल रही है, उस मुजब पुण्यदान किये वाद तुरंतही उनद्रव्यकी चाहियें वैसी व्यवस्था करदेनी चाहियें, उसके बदले में वो द्रव्यके देवेमेंही आप दान पुण्य कथन करनेवाले डूब जाते हैं और उनके पापके छींटे औराकोभी लग जाते है; वास्ते वैसे दान पुण्य निमित्त निकाले गये द्रव्यका तुरंतातुरंत निर्णय किये गये है
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy