SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करदेना पड़ता है, वैसे या उस्से अधिक ये धर्ममहाराजका देवा समझनेका है; तथापि जो शख्स ठगबाजी करके व्याज आप पचाकर मुद्दल मूडी भी थोडी मुदतमे चुका नहीं देता है, उनको जरुर बहुत संसार भ्रमण करना पड़ता है. श्री धनेश्वरसूरीजाने श्री शत्रुजय महालय में कहा है कि: . अनुष्टुप्-छंदधर्मेणाधिगतपर्यो, धर्ममेव निहति यः कथं शुभायतिर्भावी, सुरवामीद्रोह पातकी. . यानि धर्म प्रभावसे मिली हुई लक्ष्मी जीरकों ऐसा लगीवंत पाणी धर्मकोंही लोपता है वो स्वामीद्रोह करनेहारा पाका भला क्यों कर हो सकै ? अर्थात् वैसी बददानतवाला पापी प्राणीका बहेतर कोई तरहसे होनेका संभव नहीं है. वास्ते बोलना वैसा ही पालना यही सजनताका लक्षण है. सच्च रीतिसें तो पहिले बोल बोलनाप्रतिज्ञा करनी-सो पूर्ण तरहसे अपनी शक्ति विचार कर करनी के जिसमें पीछे उस जपानसें फसक जानेका-प्रतिज्ञा भंग करनेक वख्त न आवै. आजकल इस तरह पूर्ण विचार किये बिगर ही फ गाडरीये प्रवाहसे प्रतिज्ञा कर भ्रष्ट होते हुवे और भये कुवे और वैसा कर आखिर महा दुःखी स्थिति साक्षात् अनुभवमें लेते हुवे बहुतसें प्राणी नजर आते हैं. जब ज्ञानी पुरुष लक्ष्मी पैदा करनेका मुख्य साधन न्याय प्र; ___ माणिकता ही बतलाते हैं, तब आजकल बहुतसे गवार अन्यायको
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy