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________________ १९७ दोष पद - ढेले पथ्थरकों समझ कर दूरकरसकते हैं, ये सब वि - बेकका प्रभाव है; वास्ते ही उसका विशेषतासें आदर करना कहा है. अन्यस्थानमें बाल ख्यालमै - अज्ञानताके जोरसें किये गये पाप तीर्थस्थानकी सेवा द्वारा क्षय होजाते हैं; परंतु वैही तीर्थस्थान पर अविवेकद्वारा किये गये पाप वज्रलेप जैसे होजाते है, वै पाप बहुत दुःख देते हैं; वास्ते तीर्थसेवा करनेके अभिलाषी जनोंकों तीर्थ सेवाको रीति जाननेकी और जानकर उस मुजब बन सके उतनी खंतसे चलने की खास जरूरत है. पहले तो देखो कि आजकल भी श्री शत्रुंजयजी आदिकी विधिपूर्वक यात्रा करनेकी दरकारवाले भविकजन अपने स्थानसे श्री संघ समुदाय या स्वकुटुंब परिवार सहित शास्त्रमें बताई गई छःरी यानि ब्रह्मचर्य, भूमिशयन, सचित्त परिहार, एकाशनत्रत, जयणयुक्त पैदल चलना, और दोनू वख्त प्रतिक्रमण इतने (छ कार्य अर्थात् स्त्री संगम, पलंग -मांचेमें सोना, सचित वस्तुखाना, अती रहना, जयणा रहित वाहनपर बैठ के पंथ करना और दो चख्त पडिकमणे नहीं करना. ये छ कार्यकों दूर करके तीर्थ के निमित्त जाना, जब छ वस्तु दूर करनेसें-छःरी पालन किया कबूल होता है. उसी लिये ये छः ) कार्य सहित तीर्थपतिकी भेट लैनी, और इस तरह करके भेट लेवे तो बेडा पार हो जाता है. चास्ते विशेष भाव और बहुत मान्यसे तीर्थ तीर्थराजकी सेवा भक्ति करनी चाहिये. और विशेष विशेष प्रकारसे व्रत -तप-जप >
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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