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________________ १९६. अविधि, यावत् गुणदोषकों जिसद्वारा जान सके-बांट सके और पहिचानसकै उसको ही 'विवेक' कहा जाता है. यह जीव अनादि मिथ्यावासनायें पर - शरीर, कुटुंब, परिवार, लक्ष्मी आदिक पदाथोंमें अपनापणा मान रहा है. खुश होता है, उससे रागकी प्रेरणायुक्त भयाहुवा अनेक पापारंभ करीकें भी संतोष मानता है. खुश होता है. विवेक जागृत होनेसें उनको मिथ्या मानकर उसमें - स्थापन किया हुवा मेरापणा कम होनेसें रोग भी कम हो जाता और उससे पापसें दूर हटनेका भी बन सकता है. विवेक वि गर ये जड शरीर सो 'मैं' युं मानताथा, वो विवेक प्रकट होते ही ज्ञान दर्शनादिक लक्षणवंत चेतन द्रव्य 'मैं' और पूर्ण, गलनस्वभावी शरीरसो मैं नहीं, मेरा नहीं, मेरेसें अलग, सो तो पूर्वकृत कर्मयोग से ये चेतनकी लार लगा है वो मेरा नही; वास्ते उसमें ममता करनी ना लायक है; परंतु ज्ञानशक्तिसें विचार कर ममताको ह ठाके उनपर त्याग वैराग्य धारण करना लायक है. विवेक जागृत हुवे विगर मोह मदिराके नस्से में मुझे क्या हित-क्षेमकारी है ? और क्या उससे उलटा है ? मुझकों क्या करना लाजिम है ? क्या करना बे लाजिम है ? मुझकों क्या करनेसें सद्गति, और क्या करनेसें दुर्गाति भाप्त होयगी ? इत्यादि नहीं समझा जाता है और विवेकलोचनं खुल जावै तव वै सब यथास्थित समझने में आ जाता है. भक्ष्याभक्ष्य, पेयाय और गुणदोषका भी सहज ही में भान हो जाता विवेकीनर जोहेरीकी तरह गुणरत्नकों परख सकता है, और f 1 J
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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