SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ २९ कथा हो रहे वाद शिष्यने अपनी सुज्ञता दिखाने वाले पर्षदासमक्ष वही कया सविस्तर न करनी चाहिये. ३० सुरुजीकी सच्या-संथारादिको अपने पाँवसें संघ न __ करना और यदि हो गया होवै तो खमा लेना चाहिये. ३२ गुरुजीसे ऊचे आसन पर न बैठना, या अधिक आसन __पर न बैठना, गुरुजीसें जारती कीमतवाले वस्त्र उपयोगमें न लेने चाहिये. ३१ गुरुजीके संथारेपर असभ्य रीतिसें बैठना सोना लोटना न चाहिय. ३३ गुरुजीके समान आसन पर बैठना अगर गुरुजीके जैसे ही वस्त्रादिकका उपयोग करना न चाहिये. __ ये पताइ गइ संक्षेपयु तेत्तीस आशातनाओंकों दूर करके गुरुजीका बहुमान समालता हुवा शिष्य विधिपक्ष-शास्त्रमार्गका आराधन कर अनेक भवसंचित कर्मरुपी धूलको खपवाकर जरूर आत्मकल्यान कर सकै. विनय यही जिनशासनका मूल है, वास्त विधिपूर्वक गुरुजीका विनय करना. विनय विगर विधा, विधा बिगर विज्ञान, विज्ञान बिगर विक समकित, समकित विगर चारित्र और चारित्रविगर मुक्ति मिलती ही नहीं, उस वास्ते समस्त गुणोंका मूल सब-वशीकरणभूत विनयगुणको ही विशेष सेवन करना चाहिये, जिस्से सर्व गुण सहजहीमें आ मिले.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy