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________________ जैसे मूलसही वकरोके जुथ्थमें रहनसें सिंहकिशोर भी आपका स्वरुप भूल जावै, वैसे अज्ञान-अविवेक, मिथ्या व्हेम कायरता वगैरः दोषोंके समूहमें संमीलन हुवे रहनेसें तुमारा भान भी ठिकाने 'पर नही रहे सका है, सो अब ठिकानेपर आ जाय जैसी श्री वीतराग देवजीकों हर हमेशा प्रार्थना है-सो सफल हो ! स्वपरका अंतः करणसे श्रेयचाहनेवाले हरएक वीर पुत्रको जिस प्रकार श्री जैनशासनका उदय होवै उस प्रकार कटिबद्ध होकर उद्यम करना उचित है. पुरुषार्थको कुछ भी असाध्य नहीं है। वास्ते असे उत्तर पुरुषार्थकाही अपन सवको शरण हो !! . et-2. श्री देवगुरुवंदनादिक समय संमालनेयोग्य पंचाभिगमादि. । १ सचित्त द्रव्यका त्याग-आपके उपयोगमें लेने लायक सुचित्त द्रव्य फल फूल वगैर:का त्याग करना. २ अचित्त द्रव्यका स्विकार-श्री देव गुरु वंदन पूजन लायक वखालंकार धारन करना. ___ ३ मनकी एकाग्रता करनी-अन्य प्रकारके संकल्प विकल्प छोडकर उक्त कार्यमेही चित्तकों पिरादेना. - ४ एक साडी उत्तरासंग-अखंडित-नफटा तूटा हो साउनरासंग वंदनके वख्त अवश्य धारन करना..
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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