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________________ १७८ का बेदरकारीसें लोप होता हुवा नजर आता है, क्वचित् चुराया जाता है, क्वचित् हजम किया जाता है. प्रभुकी पवित्र भक्तिका कार्य बहुत करके वेटकी तरह बजाने में आता है. दीपकमें पतंगीए वगैर: जंतु पडकर भरते हैं उनकी प्रायः संभाल लेनेमें नहीं आती है. जिनमंदिर बहुत रात जाने तक भी खुले रखे जाते हैं - प्रायः अवसरका काम अवसर पर करनेमें नहीं आता है; इतनाही नहीं मगर अपनी भूल सुधारनेकों कभी कोइ प्रेरणा करे तो उसकी 'तर्फ नाराजी बतलाकर आप जो करता है सोही ठीक है जैसा स्थापन कर कितनेक विषकों छौंकाते हैं, ये सब सचमुच अज्ञानकाही प्रभाव हैं. अपने पवित्र शासनानुरागी वीरपुत्रोको अब ज्यादे जागृत होने की जरूरत है. अपनी इतनी पतित स्थिति जैसे अनेक अविधि दोषोंकाही परिणाम मालुम होता है, जहां तक अज्ञान अविवेक - मिथ्याभिमान दूर न होवेंगे वहांतक अपनी कोमकी स्थिति सुधरनी बहुत ही मुश्किल है. सुविवेक धारन किये बिगर अपन अपने उपकारी परमात्माकी पवित्राज्ञाको विधिवत नहीं पालन कर सकेंगे, और उस विगर अपन धर्मकरणी करते हुवे परभी यथार्थ लाभ न मिला सकेंगे. जैसा समझकर मेरे प्यारे वीरपुत्र पुत्रिये ! तुम जागृत हो जाओ ! प्रमादरुपी महाशत्रुका पल्ला छोड दो ! और दिलमें अच्छी उमीयें लाकर परमकृपालु प्रभुकी पवित्र आशाकों बरोबर पालनेके लिये तत्पर हो जाओ. तुम मनमें धारनकर हो तो कर सको वैसा है; क्योंकि तुम वीरपुत्र पुत्री हो; तथापि なん
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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