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________________ आगमयर और जिन प्रतिमाजी या जिनमंदिरजीके उपरही है. आगमोंकी स्थिति कैसी दयाजनक हो गइ है वो पेस्तरके पेरिग्राफसे समझनेमें आ गया है, और उस परसें आजकल आगमधर कैसे है अथवा कैसे हो सकै वो भी कुछ समझने में आयगा; अर्थात् मूले पडे हुवे वा परजाने वाले उक्त आधारको टेका देनकी अपनी खास फर्ज है. जिनप्रतिमा या जिनमंदिरोंके संबंध भी करीव वैसाही है-इसका सेवन भी मुख्यतामें अज्ञान, अविवेक या कुसंपही नजर आता है. अगाडीके वस्तमें जब पृथिवीकों जिन पासादमंडित करने के लिये समर्थ श्रावक वीर थे, तब अभी आपके गाँवमें या नगरमें जो जिनमंदिर या जिनबिंब है उनका संरक्षण करनेको भी श्रावक भाग्यसही समर्थ होते है। सवव कि आजकल कितनेक धनपात्र पैसेकी केफ शाहाने-दीर्घदशी श्रावकोंकी दलीलपर वेदरकारी बताते हुवे नये नये मंदिर बनवाकर उसमें नथी नयी प्रतिमाजीयें भरवा कर जितना फजूल पैसा उडादेते है सो विवेक विगरही उडाते है; यदि उतना द्रव्य विद्यमान मंदिरोकी मरामतम या उन्होका संरक्षणतामे, जिन भक्तिमें विवेक पूर्वक खची करै तो.अपार लाभ हासिल कर सकै; लेकिन जब जैनकोमका और उसीके साथ आपका बहेनर होनेका होवै तब उन्होंकों जैसी सद्बुद्धि या विवेक जागृत होवै ना ? एक दूसरेकी स्पर्धासें फक्त मिथ्याभिमानमा अंध होकर यशकीर्ति गवानके वास्ते किया गया चाहे वैसा बड़ा काम उचित विवेककी बडी भारी न्यूनतासें कया •
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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