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________________ १६४ की सहायता मदद ले दूसरी शुद्ध प्रत करा लेनी दुरस्त मालूम होती है. लाभ गेरलाभ विचारकर जितनी आशातना दूर हो सके उतनी दूर कर पवित्र ग्रंथोंका उद्धार करना ये विवेकवंत समयज्ञ श्रावकोंकी खास फर्ज है. अपने परमपवित्र शासनका सञ्चा आधार उपर कहे हुवे अमूल्य और पवित्रशास्त्रोके उपर ही है. वो अपना अमूल्य वारसा आजकल के कितनेक मिथ्या मान के पुतलों के विश्वास से अपन गुमा न बेठे उस वास्ते अपनकों ज्यादे सावध रहनेकी जरुरत है वास्ते जिनके कवजेमें वैसे पुस्तक है उनको समझा१९ कुल कवजा हाथकर शासनकी तर्फ गंभीर फिक्र सहित खंत रखनेवाले नररत्नोंकों आगेवानी देकर उन्होंकी निगेहबानीके नीचे वो अति कीमती पारसा संभालना. अपनी वेदरकारीसे अपनने बहुत मा दिया है, और वो इतना मेंधा था कि उसका मूल्य बडे ज्ञानी शौहरी ही कर सकते हैं। मगर शिंग और पूंछ विगर के नर पशु न कर सकेंगे. उमीद है कि अबी भी कुंभकरणकी गाढ निद्रा__ मेंसें जागृत हो अपना भविष्य सुधारनेके वास्ते अपने कोई कोई ‘भाइ कुछ करेंगे, और कुछ झनुनसे कहे गये कठिन शब्द पास्ते अच्छा मानेगे. इकतीसवाँ-तीर्थ यानि शासन उनकी प्रभावना यानि उन्नति जो सुश्रावक है वो यथाशक्ति अवश्य करेंगे. उपलक्षणोंसें कोई बुरे संयोगोंस करके भइ हुइ मलीनताको भी दूर करेंगे. यहांपर वर्तमान श्री वीर शासनका मुख्य आधार आगम या
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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