SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५१ मउरा क्रमशः उनपर प्रीति बढती रहै. यापन अंतमें उसे सद्भाव प्रकट होनेसें अपूर्व लाभ प्राप्त होवै. वा पवित्र शास्त्रों में कही हुइ मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थतारूप चार पाचन भावनाओं तथा राज्यदशाको बढ़ा करके अंतमें उत्तम उदासीन भाव मिला दनहारी अनित्य अशरणादि बारह भावनाए भवभीर भव्योंको हर हमेशा क्षणक्षणमें शुद्ध अंत:करणसे अवश्य भावने योग्य है. उtho भावनाए विगर त बसें वैराग्यकी न्यूनता द्वारा क्रिया फिकी लगती हैं. दशवा-स्वाध्याय-१ पाचना नवीन शास्त्रका पढना, २ पृच्छना शंकाका समाधान करना, ३ परिवर्तना-पढा हुआ न भूल जाय उस पारले पुनः पुनः याद करना, ४ अनुप्रेक्षा-चिंतन किये हुवे अर्थका चितवन करना, ५ और धर्मकथा-जिसमें अपनको अच्छी तरहसे समझ ५६ चूका हो और बिलकुल भ्रांति न रही हो वो धावत योग्य जीवोंको कहकर धर्ममें जोड देना. वो पांचों प्रकार हरहमेशां अवश्य करने लायक हैं. उसमें चित्तकी एकाग्रता होनेसे आते हुवे कर्म रुक जाने के साथ अपूर्वभावयोगसे पूर्वकर्मकी वडी भारी निर्जरा होती है. अन्यारवाँ-नमुकारो नमस्कार यानि पंचपरमेष्टि नमस्काररुप महामंत्रका नित्य रण करनां. एक क्षणमरभी प्रमादमें पडकर उक्त महामंत्रका न भूलजाना. उक्त महामंत्र चौदह पूर्वका सारभूत है; वास्त उनका परम आदरस सेवन मनन ध्यानादिक | सदन मनन
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy