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________________ लायक है, और जिस प्रकार पवित्र धर्मकी प्राप्ति तथा पुष्टि हो पैसा सदाचार हमेशा सेवन करने योग्य ही है. ___आठवाँ-तपधर्मका यथाशति अवश्य सेवन करतही रहना. जैसें अनि तापसे सुना शुद्ध होता है तैसें तपके तापसे आत्मा शुद्ध होता है. संयमसे नये आते हुए कर्म रूक जाते हैं, और समतापूर्वक सेवन करने में आते हुए द्वादशविध तपधर्मसें पूर्व - के कर्म दग्ध हो जाते हैं. ७६ अध्मादिक बाह्य तप सेवनसें जरासी तकलीफ उठानी पड़ती है, तोभी उनका विवेक व क्षमा सहित सेवन करनेसे अतुल लाभ हाथ आता है। वास्ते मोक्षार्थी भव्यजनोको ७० कथित तप अवश्य सेवन करने ही लायक है. . नौवा-भावना ये भवभवकी भीरभंजक और उत्तम सुखके पास्ते श्रेष्ठ साधन है. पुर्वोक्त दान शील तप आदिक सब धर्म करणी भावनाके सिवाय निष्फल है. लून बिगरका धान्य-भोजनकी तरह करनेमें आती हुई धर्मकरणी कुछ मजाह नहीं देती, और भावनाके मिलानेसें वो सब सरस सुखद हो पडती है. वो भावना, करनेमें आती हुई धर्मकरणी या करनेका इरादा हो वो अवश्य करने लायक धर्मकरणीकी यथायोग्य समझ मिलाकर उनका निरंतर प्रीतिपूर्वक अभ्यास करनेसें प्रकट होती है. अंतमें उक्त करणी भावनामय बन जाती है, वास्ते पहिले तो हरएक करने लायक धर्मकरणीका प्रयोजन-फल सद्गुरु द्वारा पूंछकर निश्चय करना-जिसे उक्त धर्मकरणी करनेसें मन स्थिर हो सकै और
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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