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________________ १४७ માાં છોડના અવશ્ય અનેશ્વરઃ સામાયિ ચિાર જાના(२) श्री ऋपमदेवजीसें लगाकर श्री महावीर स्वामी प्रभु तक २४ तीर्थकरों की अति अद्भुत गुण स्तवनारूप 'चडविसथ्या' प्रतिदिन परमार्थ समझकर जरूर पढना, इस्से समकित गुणकी शुद्धि होती है. (३) सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्रको सेवनेहारे आचार्यादिक सुविहित साधु निर्ग्रयोंकों हर हमेशां द्रव्यभाव विनयपूर्वक 'वंदन' करना, वैसे गुणशाली गुरु महाराज के वंदनसें अपनको ज्ञानादिक गुणों का लाभ मिलता है. (४) जानते या अनजानतें भइ हुइ भूलोंको सुधार लेने के लिये पश्चात्तापूर्वक वैसी भूल फिर फिरके नहीं करनेकी बुद्धिसें गुरुमहाराज साक्षिक आलोचना करके शुद्ध होजाना उसीका नाम 'प्रतिक्रमण' है. बेर वेर जान बूझकर भूल दोष सेवन करके आलोचना करनी ये हितकर नहीं हैं; वास्ते सम्यग् आलोचना कर तुरंत भूल सुधार पुनः वैसी भूल उपयोग रखकर न होने देनी. यही सत्यतासें समझने का सार है. (५) कायादिककी ષપતા છોક સ્થિરતા જણ્ યતાએઁ પરમાત્માજા યાનિનસ્ત્રरूपका ध्यान करना और उन द्वारा अन्य संकल्पविकल्पोसें होता हुआ अपध्यान आर्त्तरौद्ररूप बुरा ध्यान छोड देना, उसका नाम 'काउस्सग्ग' है. काउस्सग विशेष करके आत्मशुद्धि हो सकती है(६) प्रत्याख्यान यानि आत्मस्थिरता बढानेके लिये अन्य वाधक उपयोग दूर करनेके वास्ते तथा शुभ साधक - उपयोग जागृत करनेके लीये उपवासादिक तपविशेष अथवा आत्महितकर अ
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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