SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૮ (१४) चौदवें पैशुन्य - चुगली करनेवाला चुगल खोर भी महा पापी दुष्ट स्वभावी गिनाया जाता है. अहर्निश जैसी बुरी आदत सें आर्चरौद्र ध्यान धरता ही मरनके शरन होकर महा बुरी गतिकों पाता है. ' बालकोंकों हंसी की मजा आवै और दादुरको जान जानेकी सजाका वख्त मालुम होवै ' यहे कहनावत मुजब चुगल खोरोंकों तो कौतुक - तमाशा होता है. और उसमें कितनेंकके प्यारे जान निकल जाते हैं. खुद आपको हंसी होती है और कितने कके तो प्यारे जानकों - किंमती जीकों भारी जोखममें झुका देता है, और कभी आपकीही मुल आपको नजर न आ सके तो या वैसी मुल मोका मिलजाने पर भीन सुधार सकै तो अपनाही शस्त्र अपना जान ले लेता है. यानि अपने काम में आप खुदही फंस जाकर बडे कष्ट - ठाता है. अहा ! दुर्जनों का स्वभावतो देखो ? आपको कुछ भी फायदा हांसिल न हो; तोभी आपकों और दूसरोंकों कैसे दुःखके खड्डेमे गिरा देते है, और इन भवमें अनेक आपत्ति पाकर परभचमें दुर्गतिके शरण होते हैं. इनका खियाल करके विवेक लाकें स्वपर दुःखरूप चुगलीकी बुरी आदत छोडनेका यत्न करना. (१५) पंद्रहवें रति- अरति मन पसंद चीजोंपर राग और ना पसंद चीजोंपर द्वैष धारन करना वही रति अरति है, समानभाव घरने के योग्य पदार्थोंपर राग द्वेष करके मोहवंत हो जाना ये समभाव द्वारा प्राप्त होनेवाले योग्य उत्तम प्रकार के सम सुखमें महा अंतरायभूत और मनकी मलीनता करनेहारा वडा पापस्थानक
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy