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________________ ३२७. . (११) अगिया द्वेष येभी मोहकाही पुत्र है और रागका सगा भाई हैं और दोनु दोस्त होनस साथके साथही रहते हैं. अलग नहीं पड़ते हैं. शुद्ध स्फटिक शिलापर रखा गया काले फुलसे स्फटिकमें जैसे काला रंग मालुम होता है. उसी तरह आत्माके शुद्ध स्वभावकों बदल डालकर महा अशुभ मलीन-शाह कर डालता है; वास्ते रागके समानही द्वेषका उपाय करनेसें उसका ५।जय होयगा. (१२) चारहवें कलह-क्लेश कलह-टंदा फिसाद-लाइ ये सब मिलतेही अर्थ वाले शब्द हैं. कलह सब दारिद्यका कारण है सुख सपंत्तिकी चाहना पालेको कजियेकों जड मूलसे उखाडकर शांतिका भजन करना. (१३) तेरहवें अभ्याख्यान-अभि-आख्यान यानि झूठा आरोप रखना-खोटा कलंक चढाना किसीकेपर नाहक तोहमत रखदेना ये महीन् दुष्ट स्वभाव समझना. ज्ञानी पुरुष वैने जनकों कर्मचांडाल कहते है. जातिचांडालसें भी कर्मचांडाल महापापी है; क्योकि वो दुष्टगुणी धर्मीजनोंकी भी पदी किया करता है, यावर महाधर्मीष्ट जनोंकोंभी बडे भारी संकटमें उतार कर आप तमाशा देखा करता है. जैसे नीच लोगोंका नाम लेनसें या मुंह देखनसे भी पापका प्रसंग आता है जैसा ज्ञानी पुरुषोंने शास्त्रमें कहा है-जैसा समझकर मुज्ञजन कभी जैसी बुरी आदत न पाडगे, और शायद પફ દો તો તુરંત દૂરવાર મે.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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