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________________ ११७ सदन छोड़ दो. और शुद्ध देव वीतराग परमात्मा, शुद्ध गुरु-निग्रंथ अणणार, और शुद्ध धर्म-केवली प्ररुपितका शुद्ध दिलस सवन क रो. मन, वचन, तन ये तीनूंकी शुद्धिसें सुदेव-सुगुरु-सुधर्मकी आरा___थना करो. कुदेवकी मनसे इच्छा, वचनसे प्रार्थना, और तनसे चाहे वैसा कट आ पड़े तथापि कुमारपाल भूपालकी तरह अडग धीरज धारन करके निर्भय रहो. इस तरह अचल रीति मुजब तीनूं तत्वोंका सेवन करनेसें आखिर तुम बहुत सुख पाओगे. यदि असा न करोग तो वेशक तुम सब बाजी हार जाओगे. जगत्म भी 'क्षणभरमें मासाभर और क्षणभरमें तोलेभर-' होने वाले चपल चित्तवंत निंदाके पात्र होते है. और जैसा मनमें वैसाही बचन में __ और जैसा वचनमें वैसाही तनमें वर्तन रखनेवाले जन जगतमें व हुत यशवाद पाते हैं. कुमारपालकी तरह दुसरे जीवोंको दृष्टांतरुप होते है. वास्ते स्थिर मन बचन तनद्वारा शुद्ध देवगुरू धर्मरुप तीन तत्वोंका एकाग्रपणेस आराधन करना, जिसमें आखिरमें अपनभी उसी रुप हो जावैधानि चारों गतिरुप भवभ्रमणा दूर करके पंचमी मोक्षगतिरुप अक्षयपद अवश्य प्राप्त कर सकें, और सभी दुखोंका अंत कर संपूर्ण सुख स्वाधीन कर कायमपणे उसका साक्षात् अनुभव कर आनंदमें मग्न होवें. (सप्त महा व्यसनोंका वर्जना.) अब भब्य जीव ! नरक गतिमें जाने के दाखिल होने के दरबजे समान सात महा बडे व्यसन ज्ञानीजनोंने शास्त्र में विस्तार- •
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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