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________________ १०९ अनंतकाय छोड कर, और दूसरे भोज्यपदार्थेभी जीवाकुल नहीं है ऐसा मालुम हुवे पाद, तथा जानकरके या अनजानतें जीवोंका संहार करके बनाया गया न होय वैसेही उपयोगमें लेने चाहिये. वो भी दिनमें प्रकाशवाली जगहमें पुस्ते परतन में रखकर उपयोग में लेने चाहिये कि जिसे स्वपरकी वाधा-हरकत के विरहसें जयणा माताकी उपासना की कही जावै. वापण भी हितकारी और कार्य जितना-(Short & Sweet) तथा धर्मकों दखल न पहुंचने पावे वैसा और जैसा जहां समय उपस्थित हो वहां वैसाही (समयोचित) पोलना. और पोलने के वस्त विरतितका मुहपत्ति और गृहस्थको भी इंद्र महासनकी तरह धर्मकथा प्रसंग समय जरुर उत्तरासंग-वस्त्रको मुंह. आगे रखकर बोलना कि जिसे जयणा सेवनकी मालुम होवै. ___ इस तरह उपर कही गई करणिय करने के रुत ज्योज्यों अप्रमत्ततासें वर्तन रखा जाय सौ सौ विशेषतासें आराधकपणा समझना. और उसे विरुद्ध वर्तन रख्खै तो विराधकपणा समय लेना. पूज्य मातुश्रीकी तरह मानने लायक श्री पूज्य तीर्थंकर गणधर प्रणीत पवित्र अंगवाली जयणामाताका अनादर करके पतन चलानेवाले कुपुत्रोंकी तरह इन लोकमें और परलोकम हांसी तथा. दुःख के पात्र होते है. वास्ते सपूतकी तरह जयणामाताका आराधना करनेमें नही चूकना-यही तात्पर्य है. (२) झूठवाडा-y अन्न या पानी खाने पीने या छटनेसे.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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