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________________ ( ८८ ) प्रारम्भ में... .. विधन विडारण सुख करन आनन्द अंग उल्लास । . गवरी-सुत पूणमुधवर प्र यक्षा पूरो आस ।। ६- सं० १६०५ ५० मतिसारके 'कपूर मज्जरी रास के प्रारम्भ में.... प्रथम गणपति वर्णवऊ गवरी पुत्र उदार। . लक्ष लाभ जै पूरवह, देव सविहुँ प्रतिमार || सेवंजस मुगट भर, सींदूर सोहि सिरीरि । सिद्ध बुद्धि नउ भरतार, जे 'बुद्धि दातार वड वीर ।। ७-सं० १६३० में महेश्वरसूरि-शिष्यरचित 'चंपक सेनरास' के प्रारम्भ में... गणपति गुन निधि विनऊ, सरस्वति करोपसाद । ८-सं० १७३६ में कवि लालचन्द रचित 'लीलावती' (गणत) भाषा में बीकानेर में रचित... गणपति देव मनाइ के, सुमरि देवि सरसति । भापा लीलावती करूं चतुर सुनो इक चित्त ।। सोभित सन्दूर पूर, गज सीस नीके नूर, एकदंत सुन्दर विराज भालचन्द जू । सुर कोरि कर जोरि, अभिमान दूर छोरि । प्रणमत जाके पद पंकज अर्मन जू ॥ गौरीपूत सेवे जेउ सोउ मन चिंत्यो पावे, ऋद्धि वृद्धि सिद्धि बुद्धि होत अानन्द जू। विघन निवारे संत लोककू सुधारे जैसे, गणपति देव जय जय सुखकंद जू ।।
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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