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________________ कर सकते हैं। फिर अपने दर्शन को एकान्तरूप से पूर्ण यया. और अपने कथन को एकान्त सत्य करार देकर दूसरों के दर्शन और कथन को घोषित असत्य करता क्या सत्य के साथ अन्याय नहीं है ? इस तथ्य को हम एक अन्य उदाहरण से भी समझ सकते हैं । एक विशाल एवं उचुग सुरम्य पर्वत है, समझ लीजिये हिमालय है। अनेक पर्वतारोही विभिन्न मार्गों से उस पर चढ़ते हैं और भिन्न-भिन्न दिशाओं की ओर से उसके चित्र लेते हैं। कोई पूरब से तो कोई पश्चिम से, कोई उत्तर से तो कोई दक्षिण से। यह तो निश्चित है कि विभिन्न दिशाओं से लिए गए ये चित्रं परस्पर एक दूसरे से कुछ भिन्न ही होंगे। फलस्वरूप देखने में एक दूसरे से विपरीत ही दिखाई देंगे। इस पर यदि कोई हिमालय की एक दिशा के चित्र को सही बताकर अन्य दिशाओं के चित्रों को झूठा बताये या उन्हें हिमालय के चित्र मानने से ही इन्कार कर दे तो उसे पाप क्या कहेंगे? वस्तुतः सभी चित्र एक पक्षीय हैं। हिमालय की एक देशीय प्रतिछवि ही उनमें अंकित है, किन्तु हम उन्हें असत्य और अवास्तविक तो नहीं कह सकते । सव चित्रों को ययाका मिलाइए तो हिमालय का पूर्ण रूप आपके सामने उपस्थित हो जाएगा। खण्ड-खण्ड हिमालय का एक अखण्ड आकृति ले लेगा और इसके साथ हिमालय को दृश्यों का खण्ड-खण्ड सत्य एक अखण्ड सत्य की अनुभूति को अभिव्यक्ति देगा। यह बात विश्व के समग्र सत्यों के सम्बन्ध में। कोई भी सत्य हो, उसके एक पक्षीय दृष्टिकोणों को लेकर अन्य दृष्टिकोणों का अपलाप या विरोध नहीं होना चाहिए, किन्तु उन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दृष्टिकोणों के यथार्थ समन्वय का प्रयत्न
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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