SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उभर कर आती है, जो अनेक दृष्टियों से सुन्दर है । भावात्मक और कलात्मक रूप दृष्टि से पुस्तक छोटी होते हुए भी हिन्दुत्व और जैनत्व के एकता के विषय में महान है । प्रत्येक मनुष्य अपनी उदात्त एवं मौलिक अन्तरदृष्टि के कारण स्वत: ही अपने कीर्तिमान स्थापित करने में सफल हो जाता है। ऐसी मेरी मान्यता है कि वास्तव में उदार और मौलिक दृष्टि से अवलोकन किया जाये तो जैन धर्म और वैष्णव धर्म भारतीय समाज की अटूट कड़ियां मानी जा सकती हैं । मूलत: इनमें कुछ भी भेद नहीं है, भेद का क्षेत्र सदैव सीमित होता है और अभेद का क्षेत्र अपरिमित होकर विराट् जन-मानस को सम्मोहित कर लेता है। यही रहस्य पुस्तक में उद्घाटित करने का उपक्रम लेखक ने किया है। --मुनि सुशील कुमार
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy