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________________ अर्थात् मैं राम नहीं हूँ, मेरे अन्दर कोई इच्छा नहीं है। विषयों में भी मेरा मन नहीं है। अब तो मैं वीतराग जिन के समान शान्त बन जाना चाहता हूँ। भगवान् राम के समय से . जैनधर्म के अस्तित्व को प्रस्तुत करने वाला कितना सवल और सुन्दर निदर्शन है। इसके अतिरिक्त वेदों के अनेक मंत्रों में भी जैन तीर्थंकरों का नामोल्लेख स्पष्ट रूपेण उपलब्ध होता है। यजुर्वेद में भी भगवान् अरिष्ट नेमी को देव रूप में मानकर उनसे निज कल्याण की कामना की है। स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धाश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो वृहस्पतिर्दधातु ॥ यजुर्वेद, अध्याय २५ अध्याय १६ । यहां पर (वृद्धश्रवाः) कीर्तित या प्रतिज्ञाधारक जैन श्रावक हो सकता है। इन्द्रदेव (नः) हमारे लिए कल्याण को (दधातु) स्थापित करें और (पूपा) पुष्टि करता सूर्य देव (विश्ववेदाः) सर्वज्ञाता (नः) हमारे लिए कल्याण को धारण करें। (तायः) तेजस्वी (अरिष्टनेमिः) भगवान् अरिष्टनेमि हमारे लिए कल्याण करें आदि अर्थ हैं । आधुनिक अर्थकर्ता इस शब्द का यौगिक : अर्थ अरिष्टों का नियमन करने वाला करते हैं जो कि युक्ति संगत नहीं बैठता । इन समस्त उदाहरणों से हिन्दुत्व और जैनत्व क्षीर दुग्ध एकता का प्रवल रूप हमारे सामने है। प्रस्तुत पुस्तक "जैन हिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण" में यशस्वी लेखक श्री रतन चन्द मेहता का यह प्रयास प्रशंसनीय है । पुस्तक का अर्थ इति अवलोकन करने से सृजनशीलता
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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