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________________ आणता और अप्रमाणता का निर्णय अधिसंवाद और विसंवाद के आधार पर करना चाहिये । अकलंक - द्वारा प्रमाण के इस नवीन लक्षण का औचित्य यही है कि कोई भी ज्ञान एकान्त त्यतै प्रमाण नहीं होता । चूँकि इन्द्रिया सीमित शक्ति वाली होती है, इसलिए इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान सदैव सत्य नहीं होता । रेल से बाहर दिखाई देने वाले दूध, मकान, पहाड़ आदि के अस्तित्व के विषय में कोई विसंवाद न होने के कारण उन चीजों का ज्ञान अविसंवादी है किन्तु चलती रेल से वृक्ष मकान, पहाड़ आदि का चलना विसंवादी होने से अप्रमाण है । सभी भ्रमपूर्ण ज्ञान विसंवादी होने से अनुमान ही हैं। अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण मान लेने पर अविसंवादी ज्ञान के अर्थ का स्पष्टीकरण आवश्यक है। अकलंक के अनुसार, अधिसंवादी ज्ञान का अर्थ है ऐसा जिसमें बाह्य वस्तु जैसी है पैसी ही ज्ञान में पुष्ट हो अन्य शब्दों में, बाह्य वस्तु का यथावत् ज्ञान में प्रकटीकरण ही अधिसंवाद जाये | है । इस संबंध में, यह भी उल्लेखनीय है कि अकलंक अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण मानते हुये उसे अनधिगतार्थग्राही भी कहते हैं। 24 प्रमाण के इस नवीन लक्ष्मका अभिप्राय है - ऐसा ज्ञान प्रगाण होगा जिसका किसी दूसरे प्रमाण से निर्णय न किया गया हो । प्रमाण का विषय "अ" है | मानन्द अवाक देव के प्रमाण के उपरोक्त नवीन ल का समर्थन करते प्रतीत होते हैं जब वे प्रमाण को अपूर्व विशेषण देते हैं। साथ ही कहते हैं कि "स्व" अर्थात्, अपने आपके और "अपूर्वार्ध अर्थात् जिसे किसी अन्य प्रमाण नहीं जाना जा सकता ऐसे पदार्थ के निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं 25 黪 "अपूर्व" शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए माणिक्यनन्दि कहते है कि जिस पदार्थ का पहले "किसी प्रमाण से निश्चय नहीं किया गया हो उसे अपूर्वार्थ कहते हैं 126 आपने वाह यह भी कहते हैं कि केवल अनिर्णीत पदार्थ ही अपूर्व नहीं होते बल्कि ऐसे पदार्थ भी अपूर्व होते हैं जिनको यापि अन्य माध्यमों से ग्रहण किया जा चुका होता है परन्तु
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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