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________________ तो स्थान दिया, किन्तु उस ज्ञान के "सम्यक विशेषण के स्थान पर अन्य विशेषणों सिद्धसेन ने "स्वपरावभाति ज्ञान को प्रमाण कहा । का प्रयोग किया। 20 यहाँ प्रश्न उठता है कि ज्ञान के आगे "स्वपरावभासक" और "स्वपरावभाति" जैसे चित्रण प्रयुक्त करने की आवश्यकता क्यों प्रतीत हुई' इसका कारण यह प्रतीत होता है कि अन्य दर्शनों। जैसे मीमांसा, न्याय, वैशेषिक और साया में ज्ञान को स्वप्रकाशित न मानकर पर प्रकाशित माना गया है । जैन दार्शनिकों ने ज्ञान की परप्रकाशिता का खंडन करने के लिए उपरोक्त विरोध का प्रयोग किया । जैन-परम्परा का स्पष्ट विचार है कि यदि ज्ञान स्व-संवेदी न हो तो उसे प्रमाण नहीं कहा जा सकता । ज्ञान, दीपक की भाँति, दूसरों को भी प्रकाशित करता है और स्वयं अपने को भी । ज्ञान का अर्थ ही हैवह जो स्वपुकाशित हो । ज्ञान दीपक की भाँति जगाता हुआ वही उत्पन्न होता है | 21 सिद्धसेन ज्ञान को स्वपरावभाति विशेषण देते हुए एक अन्य विशेषण भी देते है - बाधाविवर्जित । सिद्धसेन के अनुसार, स्वपरावभाति और बाधाविवर्जित ज्ञान प्रमाण है 1 22 उनका कथन है कि कुछ व्यक्तियों में शारीरिक कमिया होती है जिसके फलस्वरूप उनका ज्ञान बाधायुक्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त, तत्वमीती समस्याओं पर गलत दृष्टिकोण भी बाधक होता है। ऐसे ज्ञान को प्रमाण नहीं कहा जा सकता | इन दुष्टिकोणों के निराकरण के उद्देश्य से ही सिद्धसेन ने बाधा विवर्णित विशेषण का प्रयोग किया है । - अकलंकदेव ने प्रमाण का एक और नया लक्षण दिया "अविसंवादी" 125 उनके अनुसार अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि स्वतवेदन तो ज्ञान सामान्य का लक्षण है
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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