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________________ __.. 92. कैसे हो सकता है' अकलंक देव कहते हैं कि प्रमाणता और अप्रमागता के अतिरिका भी एक तीसरी स्थिति है "प्रमाणैकदेशाला' अर्थात् प्रमाण का एकदेशपना प्रमाण ही है, क्योंकि वह प्रमाण से सर्वथा अभिन्न नहीं है तथा न अप्रमाण ही है क्योंकि, प्रमाण का एफदेश प्रमाण से सर्वथा भिन्न भी नहीं है ।21 तत: नय को प्रमाण और अप्रमाण दोनों की कोटि में नहीं रखा जाता है। इसका कारण है कि नप प्रमाण का अंश नहीं वरन् ज्ञान के प्रमाण की कोटि में आने के पूर्व एक विश्वात या प्रारम्भिक प्राक्कल्पना की स्थिति है। जैन दार्शनिकों का नय विक उपयुक्त विचार तार्मिक दृष्टि से बड़ा अस्पष्ट और विरोधी है। उदाहरणार्थ - 1. वस्तु सा है। 2. स्यात् पातु सात है। यदि हम स्यादवादमपरीकार के धन को मान लें कि नय पाक्यों में स्यात् लगा देने से या प्रमाण बन जाता है तो इसका तात्पर्य होगा प्रथम वाक्य नय हैं और तिीय वाक्य प्रमाण है किन्तु ऐसा ताकि दृष्टि से कैसे संभव है क्योंकि दोनों कथनों द्वारा व्यक्त अभिमाय तो एक ही है केवल त्यात शब्द का प्रयोग नप और प्रमाण के बीच भेद का उचित आधार नहीं है। इसी प्रकार, 114 x has many properties such as a, b, c, d, m...mtc. यह प्रमाण भान है क्योंकि यह वस्तु x में अनेकों गुणों को स्वीकार कर रहा है किन्तु निम्नलिखित वाक्य नय हैं क्योंकि वे एक वस्त x में एक विशेष गुण स्वीकार पा अस्वीकार कर रहे हैं - $26 Syat * has the property a. 134 Syat x has the property b.
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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