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________________ जैनाचार्य इस बात को नहीं मानते क्योंकि उनका कथन है कि नय प्रमाण का अंश तो है किन्तु अंधा होने से स्वयं प्रमाण नहीं हो जाता । अकलंक देव के मत में वस्तु का एक देश न तो वस्तु है और न अवस्तु । जैसे समुद्र के अंधा को न तो समुद्र कहा जा सकता है और न असमुद्र कहा जाता है। यदि समुद्र का एक अंश समुद्र है तो शेष अंश असमुद हो जायेगा और यदि समुद्र का प्रत्येक अंश समुद्र है तो बहुत से समुद्र हो जायेगें । ऐसी स्थिति में समुद्र का बान कहाँ हो सकता है।18 इसी प्रकार माइल्लल कहते हैं कि नय प्रमाण से भिन्न हैं क्योंकि को समुद्र का अंश न तो समुद्र ही है और न असमुद्र ही वैसे ही नथ न तो प्रमाण है न अप्रमाण ही 119 मल्लिसेन कहते हैं नय से सम्पूर्ण वस्तु का नहीं किन्तु वस्तु के एक देश का ज्ञान होता है। इसलिए जिस प्रकार समुद्र की एक बूंद को सम्पूर्ण समुद्र नहीं कहा जा सकता क्यों कि यदि समुद्र की एक बूंद को समुद्र कहा जाये तो भल समुद्र के पानी को असमुद्र करना चाहिये । अथवा समुद्र के पानी की अन्य दों को भी समुद्र न कहकर बहुत से समुद्र मानने चाहिए । समुद्र की एक बूंद को असमुद्र भी नहीं कहा जा सकता | यदि ऐसा कहा जाये तो शेष उश को समुद्र नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार वस्तु के एक अंश के ज्ञान को प्रमाण अथवा अपमाण नहीं कहा जा सकता। इसलिए नय को प्रमाग और अप्रमाण दोनों से अलग मानना चाहिये 120 अकलंक इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि नय न तो प्रमाण है और न अप्रमाण 'किन्तु ज्ञानात्मक है अत: प्रमाण का एक देश है इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं इस आंका के उत्तर में कि मय प्रमाण और अप्रमाण दोनों ही न हो, ऐसा
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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