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________________ घरम उर धारो ॥ ५॥ विषय कपाय दुखित दोनों भवतिन को कर परिहारौ ॥ तातें अब सव नारिं पुरुप हो सुनलो सीख हमारौ ॥६॥ सम्यक चरित घरी उरमांही जो है तारन हारी ॥ अरज करत शिर धरत चरण तल प्रभु कीजे भवपारौ ॥ ७॥ अल्पबुद्धि मोहि दीन जानके दीजे सेव तुम्हारी ॥ गिरवर दास चंदेरी वाले को कीजे उपगारौ ॥८॥ (९४) - गीत-( हरसमय) अव जराय देहौरे, मैं खिपाय दैहीरे, ये दुईमारे कमों को जराय देहोरे, ॥ टेक ॥ श्रीकृष्णने छल बल करके पशू जीव घिरवाये ॥ पिय पशुवन पर करुणा करके गिरनारी को धाये ॥ १॥ मात पिता मोहि प्राज्ञा दीजे में गिरनारी जाऊं ॥ प्रभुसे अग्निरूप दिक्षाले कर्मों की खाक उड़ाऊं ॥२॥ काहे को बेटी उदास होत है क्यों मन में पछताय ॥ सुन्दर सुघर ढूंढ कर वर मैं तोकों ' देखें विवाह ॥ ३॥ बात कहत में लाज न आवे तुम को तात सुजान ॥ तुम समान सब जग को मानों नेम विना सोई श ) कही तात ने तब समझाके कुल मेंदाग न आवे ॥ नेम कुंवर पर दिक्षा लेनो दुष्ट कर्म जल जावे ॥५॥राजुल ने जब अाज्ञा पाई पहुंची प्रभुके पास ॥
SR No.010236
Book TitleJain Gitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Sodhiya Gadakota
PublisherMulchand Sodhiya Gadakota
Publication Year1901
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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