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________________ ८० हरिये दुर्मति खेवा ॥ सातयें जिनवर भवन अनूपम वन्द नाय कर लेवा ॥ ४ ॥ अष्टम धर्म जिनेश्वर भाषित धरौ आठ पहरेवा ॥ नवमें प्रतिमा कीर्त अकीर्तम शुध मन हो बन्देवा ॥५॥ इस विधि नव प्रकार सम्यक् धरि देव नमो नव देवा ॥ शतक एक तेतालिस ऊपर गुण समस्त कर भेवा ॥६॥ ऐसे देव सुदेव नमों तिन नमत पाइयत भेवा ॥ तिनपद् गिरवरदास सुनौ भवि कीजे नित प्रति सेवा ॥७॥ गीत (शास्त्र सभा में) चेतन अपनी सुरत सम्हारो, अव तुम अपनी सुरत सम्हारौ ॥ टेक ॥ काना से आयौ कहां तूं जैहै काना रहौ लुभयारौ ॥ मात पिता दारा सुत बांधव कोई न संग सहारौ ॥१॥ गति चारों में तूं भटकत है कर मिथ्या पतियारौ ॥ रही अनादि निगोद उभय विधि भुगतौ दुःख अपारौ ॥२॥ तिर्यग मांहि बहुत दुख भोगे नरकन को नहिं पारौ ॥ कवहूं जाय पुन्य भागन तें पायौ सुरगत प्यारौ ॥३॥ काकतालवत् पाय मनुष गति दूर करौ अँधियारौ ॥ कर श्रद्धान वचन जिनवानी परम प्रीति उर धारौ ॥४॥ अष्ट कर्म ये वहु दुख दाता तिनको कर निरवारौ ॥ परनारी से भूल न बोलो शील
SR No.010236
Book TitleJain Gitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Sodhiya Gadakota
PublisherMulchand Sodhiya Gadakota
Publication Year1901
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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