SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शास्त्रानुसार तब ही तप साधना हो, ना बार बार दिन में इक बार खाम्रो । ऐसा ऋषीश उपदेश सभी सुनाते, जो भी चले तदनुसार स्वधाम जाते ॥३५२॥ मासोपवास करना वनवास जाना, प्रातापनादि तपना तन को मुखाना। सिद्धान्त का मनन, मौन सदा निभाना, ये व्यर्थ है श्रमण के विन माम्य वाना ॥३५३।। विज्ञान पा प्रथम, संयत भाव धारो, रे ! ग्राम में नगर में कर दो विहारो। संवेग शान्तिपथ पे गममान होवो, होके प्रमत्त मत गौतम ! काल खोप्रो ॥३५४।। होगा नही जिन यहाँ, जिन धर्म प्रागे, मिय्यात्व का जब प्रचार नितान्त जागे । हे ! भव्य गौतम ! अतः अव धर्म पाया, धारो प्रमाद पल भी न, जिनेश गाया ॥३५५।। हो बाह्य भेप न कदापि प्रमाण भाई ! देता जभी तक असंयत में दिखाई। रे वेष को बदल के विष जो कि पीता। पाता नही मरण क्या -रह जाय जीता ? ॥३५६॥ हो लोक को विदित ये जिन साधु आये, शास्त्रादि साधन सुभेष मतः बनाये । प्रो वाह्य संयम न, लिंग बिना चलेगा, जो अंतरंग यम साधन भी बनेगा ॥३५७७ [ ७. ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy