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________________ जो अग संग रखता ममता नही है, है संग-मान तजता समता धनी है है साम्यदष्टि रखता सब प्राणियों में, प्रो माधु धन्य, रमना नहि गारवों मे।।३४६।। जो एक मे मरण जीवन को निहारे, निन्दा मिले यश मिले सम भाव धारे । मानापमान, मुख-दुःख समान माने, वे धन्य माधु, सम लाभ अलाभ जाने ॥३४७ ग्रालम्य--हास्य तज शोक अशोक होने, ना शल्य गारव कषाय निकाय ढोने । ना भीति वधन-निदान-विधान होते, वे माधु वन्द्य हम को, मन मैल धोने ॥३४॥ हो अग गग अथवा छिद जाय य ग, भिक्षा मिलो, मत मिलो इक मार ढग । जो पारलौकिक न लौकिक चाह धारे, वे माधु ही वम ! बमे उर में हमारे ।।३४९।। है. हेय भूत विधि अाम्रव रोक देते, प्रादेय भूत वर मंवर लाभ लेने । अध्यात्म ध्यान यम योग प्रयोग द्वारा, है माधु लीन निज में तज भोग मारा ।।३५०॥ जीतो सही दृगसमेत परीषहों को शीतोष्ण भीति रति प्यास क्षुधादिकोंको । स्वादिष्ट इष्ट फल कायिक कष्ट देता, रसा जिनेश कहते शिव पन्थ नेता ।।३५१॥
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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