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________________ हूँ श्रेष्ठ जाति कुल में श्रुत में यशस्वी, ज्ञानी सुशील प्रति सुन्दर हूँ तपस्वी । ऐसा नहीं श्रमण हो, मन मान लाते, निन्ति वे परम मार्दव धर्म पाते ॥ ८८ ।। देता न दोष पर को, गुण डूढ़ लेता, निन्दा करे स्वयम की, मन प्रक्ष जेता । मानी वही नियम से गुणधाम ज्ञानी, कोई कभी गुण बिना बनता न मानी ॥८९॥ सर्वोच्च गोत्र हमने बहुबार पाया, पा, नीच गोत्र, दुख जीवन है बिताया। मैं उच्च की इसलिए करता न इच्छा, म्थाई नहीं क्षणिक चंचल उच्च नीचा ।। ९० ।। प्राचार में वचन में व विचार में भी, जो धारता कुटिलता नहिं म्वप्न में भी। योगी वही सहज प्रार्जव धर्म पाता, ज्ञानी कदापि निज दोप नहीं छिपाता ॥९१ ॥ मिश्री मिले बचन वे रुचते मभी को, संताप हो श्रवण मे न कभी किमी को । कल्याण हो म्व पर का मुनि बोलता है, हो मन्य धर्म उसका दृग खोलता है ॥ ९२ ।। हो चोर चौर्य करता विपया भिलापो, पाता त्रिकाल दुग्व हाय अमत्य भाषी। देखो जभी दुन्वित ही वह है दिग्वाता, सत्यावलम्बन सदीव मुवी बनाना ॥ ९३ ११ पपानुवाद
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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