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________________ धर्म सूत्र पाता सदैव तप संयम में प्रशंसा, मो धर्म मंगलमयी जिसमें अहिंसा । जो भी उमे विनय मे उर में विठाते, सानन्द देव तक भी उनको पुजाते ।। ८२ ॥ है वस्तु का धरम तो उसका स्वभाव, सच्ची क्षमादि दशलक्षण धर्म-नाव । जानादि रत्न त्रय धर्म, मुखी बनाता, है विश्व धर्म प्रम थावर प्राणि-त्राता ॥ ८३ ॥ प्यारी क्षमा, मृदुलता ऋजुता सचाई, प्रो गोच्य मयम धरो, तप में भलाई । त्यागो परिग्रह, अकिंचन गीत गा लो, नो ! ब्रह्मचर्य मर में डुबकी लगा लो ।। ८४ ॥ हो जाय घोर उपसर्ग नरों मुरों मे, या खेचरों पशुगणों जन दानवों से । उद्दीप्त हो न उठनी यदि क्रोध ज्वाला, मानो उमे तुम क्षमामृत पेय प्याला ।। ८५ ।. प्रत्येक काल मब को करता क्षमा मैं, सारे क्षमा मुझ करे नित मागता मैं । मैत्री रहे जगत के प्रति नित्य मेरी, हो वैर भाव किसमे जब है न वैरी ।। ८६ ॥ मैने प्रमाद वश दुःख तुम्हें दिया हो, किवा कभी यदि अनादर भी किया हो। ना शल्य मान मन में रखता वृथा मै, हूँ मांगता विनय से तुममे क्षमा मैं ॥ ८७ ।। समनसुत्तं
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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