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________________ जो वर-भाव रखना चिर, साधुनों में, प्रादोप को निरखना गुणधारियों में । शंसा स्वकीय करना उन पापियों के, ये चिन्ह हैं परम तीव्र कषायियों के ॥६००।। जो राग रोष वश मत्त बना भिखारी, प्राधीन इन्द्रिय निकायन का विकारी । है प्रष्ट कर्म करता त्रय योग द्वारा, कैसे खुले फिर उसे वर मुक्ति द्वारा ।।६०१॥ हिंसादि पंच विध प्रानव द्वार द्वारा, होता सदैव विधि प्रास्रव है अपारा । प्रात्मा भवाम्बु निधि में तब डूब जाती, नौका सछिद्र, जल में कब तर पाती ? ॥६०२।। हो वात से सरसि शीघ्र तरंगिता ज्यों, वाक्काय से मनस से यह प्रातमा त्यों। त्रैलोक्य पूज्य जिन “योग" उसे बताते वे योग निग्रहतया जग जान जाते ॥६०३।। ज्यों-ज्यों त्रियोग रुकते-रुकते चलेंगे, त्यों-त्यों नितान्त विधि प्रास्रव भी रुकेंगे । संपूर्ण योग रुक जाय न कर्म प्राता क्या पोत में विवर के बिन नीर जाता?॥६०४॥ मिथ्यात्व और अविरती कुकषाय योग, ये चार प्रास्रव इन्ही वश दुःखयोग । सम्यक्त्व संयम, विराग, त्रियोगरोष ये चार संवर, जगे इनसे स्वबोध ॥६०५॥ [ ११६ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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