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________________ प्राकाश पुद्गल व धर्म, अधर्म, काल, ये हैं अजीव सुन तू अयि भव्य बाल ! रूपादि चार गुण पुदगल में दिखाते, है मूर्त पुद्गल, न (शेष, प्रमूर्त भाते ।।५९४।। आत्मा अमूर्त नहि इंद्रिय गम्य होता, होता तथापि नित, नूतन ढंग होता । है आत्मा की कलुषता विधि बन्ध हेतु, संसार हेतु विधि बन्धन जान रे ! तू ॥५९५।। जो राग से सहित है वसु कर्म पाता, होता विगग भवम्क्त अनन्त ज्ञाता । मंसारि जीव भर की विधि बन्ध गाथा, संक्षेप में समझ क्यों रति गीत गाता ॥५९६।। मोक्षाभिलाष यदि है तज राग रागी, नीराग भाव गह ले, बन वीतरागी । ऐमा हि भव्य जन शाश्वत सौख्य पाते, शीघ्रातिशीघ्र भव वारिधि तर जाते ॥५९७॥ है पाप-पुण्य विधि दो विधि बंध हेतु, रे जान निश्चित शुभाशुभ भाव को तू । हैं धारते प्रशभ नीत्र कपाय वाले, गोभे सुधार गुभ मन्द कपायवाले ।।५९८।। धारे क्षमा खल जनों कटुभापियों में, लेवें नितान्त गण गोध मभी जनों में । बोल सदय पिय बोल उन्ही जनों के ये है उदाहरण मन्दापापियों के ।। ५९.९। | ११५ ।
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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