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________________ संयोग भाव वश ही बहु दुःख पाया, हूं कर्म के तपन तप्त, गया सताया । त्यागू उसे यतन मे अब चाव से मैं, विश्राम लूं मघन चेतन छाव में मैं ॥१७॥ तूने भवाम्बुनिधि मज्जित प्रातमा की, चिता न की न अव लौं उम पे दया की। पं बार वार करता मृत माथियों की, चिता दिवंगत हुए उन बन्धुत्रों की ॥५१८।। में अन्य हूँ तन निरा, तन मे न नाता, ये मर्व भिन्न मुझमे सुत, तात, माता । यों जान मान बुध पंडित माधु मारे, धारें न राग इनमें, निज को निहारें ॥५१९।। शुद्धात्म वेदन तया मम दृष्टि वाला, है वस्तुतः निरखता तन को निराला । अन्यत्व रूप उसकी वह भावना है, भाऊँ उसे जब मुझे व्रत पालना है ।।५२०॥ निप्पन्न है जड़मयी पल हड्डियों मे, पूरा भरा रुधिर मूत्र-मलादिकों मे । दुर्गन्ध द्रव्य झरते नव द्वार द्वारा, ऐमा शरीर फिर भी सुख दे तुम्हारा ?॥५२१॥ जो मोह-जन्य जड़ भाव विभाव गारे, है त्याज्य यों समझ माधु उन्हे विमारे। तल्लीन हो प्रशम में तज वासना को, भावें सही परम प्रास्रव भावना को ॥५२२॥ [ १०० ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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