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________________ लावण्य का मद युबा करते सभी हैं, पं मृत्यु पा उपजते कृमि हो वहीं है। संसार को इसलिए बुष सन्त त्यागी, धिक्कारते न रमते उसमें विरागी ॥५११॥ ऐसा न लोक भर में थल ही रहा हो, मैंने न जन्म मृत दुःख जहाँ सहा हो। तू बार बार तन धार मरा यहाँ है, तू ही बता स्मृति तुझे उसको कहाँ है ।।५१२॥ दुलंध्य है भवपयोधि प्रहो ! प्रपारा, अक्षुण्ण जन्म बल पूरित पूर्ण खारा । मारी जरा मगरमच्छ यहाँ सताते, है दुःख पाक, इसका, गुरु हैं बताते ॥५१३ । जो साधु रत्नत्रय मंडित हो मुहाता, संसार में परम तीर्थ वही कहाता । संसार पार करता, लख क्यों कि मौका, हो रूढ़, रत्नत्रय रूप अनूप नौका ।।५१४।। हे ! मित्र अाप अपने विधि के फलों को, हैं भोगते मकल जीव शुभाशुभों को तो कौन हो म्वजन ? कौन निरा पराया ? तू ही बता समझ में मुझको न पाया ॥५१।। पूरा भरा दृग विवोधमयी मुधा से, मैं एक शाश्वत सुधाकर हूँ मदा मे। संयोगजन्य सब शेष विभाव मेरे, रागादि भाव जितने मुझमे निरे रे ॥५१६।। [ १६ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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