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________________ गर्हा दुराचरण की अपनी करो रे ! माँगो क्षमा जगत से मन मार लो रे ! हो श्रप्रमत्त तब लौं निज आत्म ध्यानो, प्राचीन कर्म जब लौं तुम ना हटायो ॥ ४९० ।। मोद पाता - निस्पंद योग जिसके, मन सद्ध्यान लोन, नहिं बाहर भूल जाता । ध्यानार्थ ग्राम पुर हो वन काननी हो, दोनों समान उसको, समता धनी हो ।।४९१ ।। पीना समाधि-रस को यदि चाहते हो, जीना युगों युगयुगों तक चाहते हो । अच्छे बुरे विषय ऐंद्रिक है तथापि, ना रोप तोष करना, उनमें कदापि ॥ ४९२ ।। निस्संग है निडर नित्य निरीह त्यागी, वैराग्य भाव परिपूरित है विरागी । वैचित्र्य भी विदित है भव का जिन्हों को, वे ध्यान लीन रहने, भजते गुणों को । ४९३ ।। आत्मा अनन्त दृग, केवल बांध धारी, सौम्यकारी । प्राकार से पुरुष शाश्वत योगी नितान्त उसका उर ध्यान लाता । निर्द्वन्द्व पूर्ण बनना घ को हटाता ॥४९४॥ निकेतन में अपापी, से से लखते तथापि । आदि उपाधियों को, वे त्याग, आप अपने गुणते गुणों को ।।४९५।। । ६५ ] आत्मा तना तन, योगी उसे पृथक सयोग जन्य तन
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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